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फ़िराक के शहर में सिनेमा का मेला : गोरखपुर फ़िल्म उत्सव

“हो जिन्हें शक, वो करें और खुदाओं की तलाश, हम तो इंसान को दुनिया का खुदा कहते हैं.” -फ़िराक़ गोरखपुरी. गोरखपुर फ़िल्म महोत्सव इस बरस अपने चौथे साल में प्रवेश कर रहा था. ’प्रतिरोध का सिनेमा’ की थीम लेकर...

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ख़रगोश

‘ख़रगोश’ एक अद्भुत चाक्षुक अनुभव है. मुख्यधारा के सिनेमा से अलग, बहुत दिनों बाद इस फ़िल्म को देखते हुए आप परदे पर निर्मित होते वातावरण का रूप, रंग, गंध महसूस करते हैं. इसकी वजह है फ़िल्म बेहतरीन...

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विकल्प की नई राह

नैनीताल फ़िल्मोत्सव (29 से 31 अक्टूबर, 2010) के ठीक पिछले हफ़्ते मैं बम्बई में था, मुम्बई अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोह (मामी) में. हम वहाँ युद्ध स्तर पर फ़िल्में देख रहे थे. कई दोस्त बन गए थे जिनमें से बहुत...

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चपलताएं और ईमानदारियाँ : द व्हाइट बलून

यह एक छोटी बच्ची की नज़र से देखी गई दुनिया है. ईरानियन निर्देशक ज़फ़र पनाही की ’द व्हाइट बलून’ हमें अच्छाई में यकीन करना सिखाती है. ईरान से आयी इन फ़िल्मों में कोई ’विलेन’ नहीं होता. बस औसत जीवन की उलझनें...

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अराजकता में जनतन्त्र

“वे उन दिनों को याद करते हैं जब उनके पास एक जोड़ा जींस खरीदने के पैसे भी नहीं होते थे और मज़ाक में वे घर आए मेहमानों से घर में घुसने का दाम लिया करते थे. रिज़वी बताती हैं कि दरअसल वो इस फ़िल्म के द्वारा...

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